उत्तराखंड

संघर्ष से स्वर्ण तक: भवानी देवी और मीर रंजन नेगी की प्रेरणादायक कहानियाँ

38वें राष्ट्रीय खेल के “मौलि संवाद: नेशनल स्पोर्ट्स कॉनक्लेव” के 13वें दिन खेल जगत की जानी-मानी हस्तियों ने अपने अनुभव साझा किए। इस खास मौके पर पहले सत्र का विषय था “अनस्टॉपेबल: भवानी देवी की यात्रा महानता और गौरव की ओर”, जिसमें पहली भारतीय ओलंपिक फेंसर भवानी देवी ने अपनी प्रेरणादायक कहानी सुनाई।

भवानी देवी ने बताया कि उनकी खेल यात्रा छठी कक्षा से शुरू हुई थी, जब उन्होंने चेन्नई में फेंसिंग को चुना। उस समय उनके पास अधिक विकल्प नहीं थे, और फेंसिंग स्कूल में उपलब्ध थी, जबकि स्क्वैश खेलने के लिए काफी दूर जाना पड़ता। यही कारण था कि उन्होंने फेंसिंग को अपनाया। अभ्यास का उनका कठोर नियम सुबह 5 से 8 बजे तक और फिर शाम को 5 से 7 बजे तक चलता था, जिसे उन्होंने पांच साल तक जारी रखा।

2007 में जब उन्होंने अपना पहला अंतरराष्ट्रीय टूर्नामेंट खेला, तो देर से पहुंचने के कारण उन्हें ब्लैक कार्ड मिला और प्रतियोगिता से बाहर कर दिया गया। उस समय मात्र 14 वर्ष की उम्र में उन्होंने अनुशासन और समय की अहमियत समझी। उन्होंने बताया कि उनके स्कूल के सभी साथी पदक जीत रहे थे, लेकिन वह अकेली थीं जिनके पास कोई पदक नहीं था। यही वह क्षण था जब उन्होंने ठान लिया कि अब राज्य स्तर पर पदक जीतना ही है। उनकी इस महत्वाकांक्षा ने उन्हें लगातार आगे बढ़ने की प्रेरणा दी, और फिर उन्होंने राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर सफलता प्राप्त की।

कोविड के दौरान, जब उन्होंने ओलंपिक्स के लिए क्वालीफाई किया, तो उन्हें घर पर ही अभ्यास करना पड़ा। कई लोगों ने कहा कि प्रतियोगिता रद्द हो जाएगी, लेकिन उनके मन में विश्वास था कि यह जरूर होगा। इस दौरान उनकी माँ सबसे बड़ी समर्थक रहीं। भवानी ने कहा कि वह अपनी यात्रा का आनंद ले रही हैं और अगले ओलंपिक्स, लॉस एंजेलेस 2028 की तैयारी के लिए चार साल हैं, लेकिन फिलहाल वह अपनी प्रक्रिया से संतुष्ट हैं।

दूसरा सत्र: “ड्रिब्लिंग एडवर्सिटीज़ एनरूट टू ग्लोरी”

ये भी पढ़ें:  मुख्यमंत्री आवास में होली मिलन कार्यक्रम का भव्य आयोजन, सीएम आवास में दिखे उत्तराखंड की समृद्ध संस्कृति के विविध रंग

दूसरे सत्र में पूर्व भारतीय हॉकी खिलाड़ी और कोच मीर रंजन नेगी ने अपने जीवन की उतार-चढ़ाव भरी कहानी साझा की। 1978 से 1982 तक उन्होंने बतौर गोलकीपर खेला और 1982 के एशियाई खेलों में पाकिस्तान के खिलाफ भारत की हार उनके जीवन का सबसे कठिन दौर बन गई। इस हार के बाद उन्हें देशद्रोही तक कहा गया, घर पर पथराव हुआ, और समाज से बहिष्कार का सामना करना पड़ा।

लेकिन उन्होंने हार नहीं मानी। अपने कठोर परिश्रम और समर्पण के दम पर उन्होंने वापसी की और भारतीय पुरुष हॉकी टीम के कोच बने। इसके बाद महिला हॉकी टीम को भी प्रशिक्षित किया, जिसने स्वर्ण पदक जीता। उनकी जीवन यात्रा इतनी प्रेरणादायक थी कि उन्हीं की कहानी पर बॉलीवुड फिल्म “चक दे इंडिया” बनी। फिल्म में हॉकी के दृश्य उन्हीं की देखरेख में फिल्माए गए थे, और यशराज स्टूडियो में शूटिंग के दौरान उनकी कई यादगार स्मृतियाँ रहीं।

जब “चक दे इंडिया” रिलीज़ हुई, तो मीडिया ने उन पर फिर से ध्यान दिया और उनकी कहानी को सराहा। इस दौरान उन्होंने अपने दिवंगत बेटे को याद करते हुए कहा:

“साथ छूट जाने से रिश्ते नहीं टूटा करते,
वक्त की धुंध में लम्हें टूटा नहीं करते।
कौन कहता है तेरा सपना टूट गया,
नींद टूटी है, सपना कभी नहीं टूटा करता।”

उन्होंने “अभि फाउंडेशन” की स्थापना की, जहाँ वह युवा खिलाड़ियों को अपने बच्चों की तरह प्रशिक्षित करते हैं।

मीर रंजन नेगी और भवानी देवी की ये कहानियाँ न केवल खेल प्रेमियों के लिए बल्कि हर उस व्यक्ति के लिए प्रेरणा हैं, जो विपरीत परिस्थितियों में भी अपने लक्ष्य के प्रति अडिग रहता है।

ये भी पढ़ें:  पोस्ट ऑफिस में होने वाली नियुक्तियों का महेंद्र भट्ट ने राज्यसभा में उठाया मुद्दा, स्थानीय युवाओं को भर्ती में तरजीह मिलने की मांग

Related Articles

Back to top button
error: Content is protected !!